खूब थे वो बचपन के दिन जहां सुन्दर सपना दीखता था जहां भी जाती मेरी नज़र वहां सब अपना सा दीखता था डगमगाती हे
कलम मेरी अब दुनिया की इस भीड़ में नफरत की आंधी से पहले मिठे से गीत में लिखता था
जहां भी जाती मेरी नज़र वहां सब अपना सा दीखता था नहीं हे मुम्किन अब वो लम्हें खोगया हे कहीं चैन भी अब डरता हूँ
चलने से कभी गिर गिर के में उठता था जहां भी जाती मेरी नज़र वहां सब अपना सा दीखता था परवाह नहीं
किसीको किसीकी सब ख़ुदग़र्ज़ लोग हें
कभी ठोकर लगजाति मुझे तो थामने वाला मिलता था जहां भी जाती मेरी नज़र वहां सब अपना सा दीखता था
खूब थे वो बचपन के दिन जहां सुन्दर सपना दीखता था
Written By: *J N Mayyaat
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